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कल वो जो प-ए-शिकार निकला | शाही शायरी
kal wo jo pa-e-shikar nikla

ग़ज़ल

कल वो जो प-ए-शिकार निकला

मीर मोहम्मदी बेदार

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कल वो जो प-ए-शिकार निकला
हर दिल हो उमीद-वार निकला

जीने की नहीं उमीद हम को
तीर उस का जिगर के पार निकला

हम ख़ाक भी हो गए पर अब तक
दिल से न तिरे ग़ुबार निकला

जों बाम पे बे-नक़ाब हो कर
वो माह-रुख़ एक बार निकला

उस रोज़ मुक़ाबिल उस के ख़ुर्शीद
निकला भी तो शर्मसार निकला

ग़म-ख़्वार हो कौन अब हमारा
जब तू ही न ग़म-गुसार निकला

थे जिस की तलाश में हम अब तक
पास अपने ही वो निगार निकला

हर-चंद में की सरिश्क बारी
पर दिल से न ये बुख़ार निकला

'बेदार' है ख़ैर तो कि शब को
जूँ शम्अ तू अश्क-बार निकला

गुज़रा है ख़याल किस का जी में
ऐसा जो तू बे-क़रार निकला