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कल तक कितने हंगामे थे अब कितनी ख़ामोशी है | शाही शायरी
kal tak kitne hangame the ab kitni KHamoshi hai

ग़ज़ल

कल तक कितने हंगामे थे अब कितनी ख़ामोशी है

जमील मलिक

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कल तक कितने हंगामे थे अब कितनी ख़ामोशी है
पहले दुनिया थी घर में अब दुनिया से रू-पोशी है

पल भर जागे गहरी नींद का झोंका आया डूब गए
कोई ग़फ़लत सी ग़फ़लत मदहोशी सी मदहोशी है

जितना प्यार बढ़ाया हम से उतना दर्द दिया दिल को
जितने दूर हुए हो हम से उतनी हम-आग़ोशी है

सब को फूल और कलियाँ बाँटो हम को दो सूखे पत्ते
ये कैसे तोहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है

रंग-ए-हक़ीक़त क्या उभरेगा ख़्वाब ही देखते रहने से
जिस को तुम कोशिश कहते हो वो तो लज़्ज़त-कोशी है

होश में सब कुछ देख के भी चुप रहने की मजबूरी थी
कितनी मानी-ख़ेज़ 'जमील' हमारी ये बे-होशी है