कल शब-ए-हिज्राँ थी लब पर नाला बीमाराना था 
शाम से ता सुब्ह दम-ए-बालीं पे सर यकजा न था 
शोहरा-ए-आलम उसे युम्न-ए-मोहब्बत ने किया 
वर्ना मजनूँ एक ख़ाक उफ़्तादा-ए-वीराना था 
मंज़िल उस मह की रहा जो मुद्दतों ऐ हम-नशीं 
अब वो दिल गोया कि इक मुद्दत का मातम-ख़ाना था 
इक निगाह-ए-आश्ना को भी वफ़ा करता नहीं 
वा हुईं मिज़्गाँ कि सब्ज़ा सब्ज़ा-ए-बेगाना था 
रोज़ ओ शब गुज़रे है पेच-ओ-ताब में रहते तुझे 
ऐ दिल-ए-सद-चाक किस की ज़ुल्फ़ का तू शाना था 
याद अय्यामे कि अपने रोज़ ओ शब की जा-ए-बाश 
या दर-ए-बाज़-ए-बयाबाँ या दर-ए-मय-ख़ाना था 
जिस को देखा हम ने इस वहशत-कदे में दहर के 
या सिड़ी या ख़ब्ती या मजनून या दीवाना था 
बाद ख़ूँ-रेज़ी के मुद्दत बे-हिना रंगीं रहा 
हाथ उस का जो मिरे लोहू में गुस्ताख़ाना था 
ग़ैर के कहने से मारा उन ने हम को बे-गुनाह 
ये न समझा वो कि वाक़े में भी कुछ था या न था 
सुब्ह होते वो बिना-गोश आज याद आया मुझे 
जो गिरा दामन पे आँसू गौहर-ए-यक-दाना था 
शब फ़रोग़-ए-बज़्म का बाइस हुआ था हुस्न-ए-दोस्त 
शम्अ का जल्वा ग़ुबार-ए-दीदा-ए-परवाना था 
रात उस की चश्म-ए-मयगूँ ख़्वाब में देखी थी मैं 
सुब्ह सोते से उठा तो सामने पैमाना था 
रहम कुछ पैदा किया शायद कि उस बे-रहम ने 
गोश उस का शब इधर ता आख़िर-ए-अफ़्साना था 
'मीर' भी क्या मस्त ताफ़ेह था शराब-ए-इश्क़ का 
लब पे आशिक़ के हमेशा नारा-ए-मस्ताना था
        ग़ज़ल
कल शब-ए-हिज्राँ थी लब पर नाला बीमाराना था
मीर तक़ी मीर

