कल रात वो झगड़ती रही बात बात पर
और मैं किताब लिखता रहा काएनात पर
क्या सोचिए कि सोच से आगे है ज़िंदगी
पहरे लगा रखे हैं किसी ने हयात पर
क्या दास्ताँ सुनाइए उस के विसाल की
क्या तब्सिरा करे कोई सहरा की रात पर
शायद मिरी अना मिरे लहजे पे है मुहीत
शक हो रहा है उस को मिरे इल्तिफ़ात पर
तेरे बग़ैर लगता है गोया ये ज़िंदगी
तन्क़ीद कर रही है मिरी ख़्वाहिशात पर
फिर उस ने मिरी ख़ू में मुझे क़ैद कर दिया
इक ख़्वाब सा लपेट दिया मेरी ज़ात पर
ग़ज़ल
कल रात वो झगड़ती रही बात बात पर
मोहसिन असरार