कल रात सूनी छत पे अजब सानेहा हुआ
जाने दो यार कौन बताए कि क्या हुआ
नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअ'तें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
लम्बी सड़क पे दूर तलक कोई भी न था
पलकें झपक रहा था दरीचा खुला हुआ
माना कि तू ज़हीन भी है ख़ूब-रू भी है
तुझ सा न मैं हुआ तो भला क्या बुरा हुआ
दिन ढल रहा था जब उसे दफ़ना के आए थे
सूरज भी था मलूल ज़मीं पर झुका हुआ
क्या ज़ुल्म है कि शहर में रहने को घर नहीं
जंगल में पेड़ पेड़ पे था घर बना हुआ
'अल्वी' ग़ज़ल का ख़ब्त अभी कम नहीं हुआ
जाएगा जी के साथ ये हौका लगा हुआ
ग़ज़ल
कल रात सूनी छत पे अजब सानेहा हुआ
मोहम्मद अल्वी