कल नश्शे में था वो बुत मस्जिद में गर आ जाता
ईमाँ से कहो यारो फिर किस से रहा जाता
मुर्दे को जिला लेते गिरते को उठा लेते
इक दम को जो याँ आते तो आप का क्या जाता
ये कहिए कि ध्यान उस को आता ही नहीं वर्ना
महशर से तो सौ फ़ित्ने वो दम में उठा जाता
महफ़िल में मुझे देखा तो हँस के लगे कहने
आने से हर इक के है सोहबत का मज़ा जाता
ईज़ाएँ ये पाई हैं मक़्दूर अगर होता
मैं रस्म-ए-तअश्शुक़ को दुनिया से उठा जाता
क्यूँ पास मिरे आ कर यूँ बैठे हो मुँह फेरे
क्या लब तिरे मिस्री हैं मैं जिन को चबा जाता
क्या जल्वा-नुमा वो मह कोठे पे हुआ आ कर
कुछ आज सवेरे से सूरज है छुपा जाता
ये काहिशें क्यूँ होतीं घबरा के अगर ये दिल
पहलू से निकल जाता आराम सा आ जाता
अच्छा हुआ महफ़िल में 'मजरूह' न कुछ बोला
वो हाल अगर कहता तो किस से सुना जाता
ग़ज़ल
कल नश्शे में था वो बुत मस्जिद में गर आ जाता
मीर मेहदी मजरूह