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कल कहाँ बिचारी बुलबुल और कहाँ बेचारा गुल | शाही शायरी
kal kahan bichaari bulbul aur kahan bechaara gul

ग़ज़ल

कल कहाँ बिचारी बुलबुल और कहाँ बेचारा गुल

किशन कुमार वक़ार

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कल कहाँ बिचारी बुलबुल और कहाँ बेचारा गुल
आज बुलबुल दीद कर ले बाग़ की नज़्ज़ारा गुल

ख़ाली-अज़-शर ये चटकने की सदा हरगिज़ नहीं
सुब्ह दम करता है अपने कूच का नक़्क़ारा गुल

ग़ुंचा जब तक चुप रहा हर तरह ख़ातिर जम्अ' थी
ख़ंदा-ए-मुफ़रत ने लेकिन कर दिया आवारा गुल

ज़ाहिरा बातिन सुबुक था कुछ गिरानी आ गई
हो गया बुलबुल की जानिब से जो संग-ए-ख़ारा गुल

क्यूँ न गुज़रे दम-ब-दम बुलबुल का परचा ऐ 'वक़ार'
रखता है बाद-ए-सबा का बाग़ में हरकारा गुल