कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
वो देखता था मुझे अश्क-बार होते हुए
परिंदे आए तो गुम्बद पे बैठ जाएँगे
नहीं शजर की ज़रूरत मज़ार होते हुए
है एक और भी सूरत रज़ा-ओ-कुफ़्र के बीच
कि शक भी दिल में रहे ए'तिबार होते हुए
मिरे वजूद से धागा निकल गया है दोस्त
मैं बे-शुमार हुआ हूँ शुमार होते हुए
डुबो रहा है मुझे डूबने का ख़ौफ़ अब तक
भँवर के बीच हूँ दरिया के पार होते हुए
वो क़ैद-ख़ाना ग़नीमत था मुझ से बे-घर को
ये ज़ेहन ही में न आया फ़रार होते हुए
ग़ज़ल
कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
अफ़ज़ल ख़ान