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कज-फ़हम से क्या दिल की हिकायात कहें हम | शाही शायरी
kaj-faham se kya dil ki hikayat kahen hum

ग़ज़ल

कज-फ़हम से क्या दिल की हिकायात कहें हम

ख़ुर्रम ख़िराम सिद्दीक़ी

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कज-फ़हम से क्या दिल की हिकायात कहें हम
बेहतर है जो समझें सो वही बन के रहें हम

हो रौ में तिरी चश्म-ए-बला-ख़ेज़ का दरिया
इस नूर के सैलाब में इक बार बहें हम

जो कैफ़ तिरे क़ुर्ब में है और कहाँ है
देख आए हैं वैसे तो बहुत ऐश-गहें हम

थी झीलों की आग़ोश में गहराई जहाँ पर
छोड़ आए परिंदों की तरह ऐसी जगहें हम

आमद का तिरी जब कोई इम्कान नहीं है
कब तक दिल-ए-बे-ताब यूँही थाम रखें हम

जो अक्स वो चाहें वही आईना दिखाए
वो देखें हमें जैसे 'ख़िराम' उन को दिखें हम