EN اردو
कैसी मअनी की क़बा रिश्तों को पहनाई गई | शाही शायरी
kaisi mani ki qaba rishton ko pahnai gai

ग़ज़ल

कैसी मअनी की क़बा रिश्तों को पहनाई गई

साबिर अदीब

;

कैसी मअनी की क़बा रिश्तों को पहनाई गई
एक ही लम्हे में बरसों की शनासाई गई

हर दर-ओ-दीवार पर बचपन जवानी नक़्श थे
कब मिरे घर से मिरे माज़ी की दाराई गई

इस क़दर ऊँची हुई दीवार-ए-नफ़रत हर तरफ़
आज हर इंसाँ से इंसाँ की पज़ीराई गई

हर नया दिन धूप की किरनों से तप कर आए है
जिस्म से ठंडक गई आँखों से बीनाई गई

अब कहाँ वो मस्तियाँ सरगोशियाँ गुल-रेज़ियाँ
दामन-ए-सहरा से जो आती थी पुरवाई गई

वक़्त की सौग़ात है न हम हैं हम न तुम हो तुम
ज़ेहन से सोचें गईं होंटों से सच्चाई गई

आज फिर है हुक्मरानी तीरगी की हर तरफ़
रौशनी इक पल को 'साबिर' आई और आई गई