कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
टूट जाते हैं यही फ़ैसला करते हुए लोग
ग़ौर से देखो हमें, देख के इबरत होगी
ऐसे होते हैं बुलंदी से उतरते हुए लोग
ऐ ख़ुदा म'अरका-ए-लश्कर-ए-शब बाक़ी है
और मिरे साथ हैं परछाईं से डरते हुए लोग
मर के देखेंगे कभी हम भी, सुना है हम ने
मुस्कुराते हैं तिरी राह में मरते हुए लोग
क़ैद-ख़ानों के अँधेरों में बड़े चैन से हैं
अपने अंदर के उजालों से गुज़रते हुए लोग
कितने चेहरों पे सर-ए-बज़्म करेंगे तन्क़ीद
आइना देख के तन्हाई में डरते हुए लोग
ख़ुद-कुशी करने पे आमादा ओ मजबूर हैं अब
ज़िंदगी! ये हैं तिरे इश्क़ में मरते हुए लोग
तुम तो बे-वज्ह परेशान हुए हो 'तारिक़'
यूँही पेश आते हैं वादों से मुकरते हुए लोग
ग़ज़ल
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
तारिक़ क़मर