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कैसे जानूँ कि जहाँ ख़्वाब-नुमा होता है | शाही शायरी
kaise jaanun ki jahan KHwab-numa hota hai

ग़ज़ल

कैसे जानूँ कि जहाँ ख़्वाब-नुमा होता है

सग़ीर मलाल

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कैसे जानूँ कि जहाँ ख़्वाब-नुमा होता है
जबकि हर शख़्स यहाँ आबला-पा होता है

देखने वालों की आँखों में नमी तैरती है
सोचने वालों के सीने में ख़ला होता है

लोग उस शहर को ख़ुश-हाल समझ लेते हैं
रात के वक़्त भी जो जाग रहा होता है

घर के बारे में यही जान सका हूँ अब तक
जब भी लौटो कोई दरवाज़ा खुला होता है

फ़ासले इस तरह सिमटे हैं नई दुनिया में
अपने लोगों से हर इक शख़्स जुदा होता है

मेरे मुहताज नहीं हैं ये बदलते मौसम
मान लेता हूँ मगर दिल भी बुरा होता है

चाँदनी रात ने एहसास दिलाया है 'मलाल'
आदमी कितने सराबों में घिरा होता है