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कैसे होती है शब की सहर देखते | शाही शायरी
kaise hoti hai shab ki sahar dekhte

ग़ज़ल

कैसे होती है शब की सहर देखते

नीना सहर

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कैसे होती है शब की सहर देखते
काश हम भी कभी जाग कर देखते

ख़्वाब कैसे उतरता है एहसास में
तेरे शाने पे रख के ये सर देखते

एक उम्मीद थी मुंतज़िर उम्र भर
काश तुम भी कभी लौट कर देखते

बर्फ़ की झीनी चादर तले झील थी
छू के मुझ को कभी तुम अगर देखते

उँगलियाँ उन की लेतीं न सन्यास तो
मेरी ज़ुल्फ़ों से भी खेल कर देखते

एक पर्वाज़ में गिर न जाते अगर
तेरे मन का गगन मेरे पर देखते

बंद कमरों ने खोली नहीं सांकलें
वर्ना सज्दे में बैठी 'सहर' देखते