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कैसे दुख कितनी चाह से देखा | शाही शायरी
kaise dukh kitni chah se dekha

ग़ज़ल

कैसे दुख कितनी चाह से देखा

ज़िया जालंधरी

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कैसे दुख कितनी चाह से देखा
तुझे किस किस निगाह से देखा

शिद्दत-ए-ला-ज़वाल से चाहा
हसरत-बे-पनाह से देखा

इतना सोचा तुझे कि दुनिया को
हम ने तेरी निगाह से देखा

शौक़ क्या ग़ैर-मो'तबर ठहरा
तू ने जब इश्तिबाह से देखा

अपनी तारीक ज़िंदगी में तुझे
ख़ूब-तर महर ओ माह से देखा

अहल-ए-दिल पर तिरी कशिश का असर
अपने हाल-ए-तबाह से देखा

दुश्मनों से जो ग़म न देखा था
कोशिश-ए-ख़ैर-ख़्वाह से देखा

ग़म गिराँ-तर है कोह से जाना
हम सुबुक-तर हैं काह से देखा

दाइमी दूरियों का सदमा 'ज़िया'
सरसरी रस्म-ओ-राह से देखा