कैसा तिलिस्म आज ये तारी है जिस्म में
तेरा वरूद शौक़ से जारी है जिस्म में
तुम भी न जान पाओगे इस दिल का इज़्तिराब
तुम ने तो एक उम्र गुज़ारी है जिस्म में
इक सब्ज़ रौशनी है जो घेरे हुए मुझे
आयत ज़ुहा की किस ने उतारी है जिस्म में
ये मेरा इश्क़ है कि जो ज़िंदा है मुझ में तू
वर्ना तो एक साँस भी भारी है जिस्म में
तब से अजीब सोग में डूबा हुआ है दिल
कुछ ख़्वाहिशों ने जान जो हारी है जिस्म में
पीरान-ए-इश्क़ की ये दुआओं का है असर है
ज़मज़म मोहब्बतों का जो जारी है जिस्म में
शायद कि तेरी याद के महके हैं फूल कुछ
'अंजुम' जो आज रक़्स-ए-ख़ुमारी है जिस्म में
ग़ज़ल
कैसा तिलिस्म आज ये तारी है जिस्म में
अासिफ़ अंजुम