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कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से | शाही शायरी
kaisa maftuh sa manzar hai kai sadiyon se

ग़ज़ल

कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से

वसी शाह

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कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से
मेरे क़दमों पे मिरा सर है कई सदियों से

ख़ौफ़ रहता है न सैलाब कहीं ले जाए
मेरी पलकों पे तिरा घर है कई सदियों से

अश्क आँखों में सुलगते हुए सो जाते हैं
ये मिरी आँख जो बंजर है कई सदियों से

कौन कहता है मुलाक़ात मिरी आज की है
तू मिरी रूह के अंदर है कई सदियों से

मैं ने जिस के लिए हर शख़्स को नाराज़ किया
रूठ जाए न यही डर है कई सदियों से

उस को आदत है जड़ें काटते रहने की 'वसी'
जो मिरी ज़ात का मेहवर है कई सदियों से