कैसा अजब तमाशा देख रहा हूँ
आलम आलम साया देख रहा हूँ
ज़र्रा ज़र्रा टूट रही है धरती
ख़ुद को जैसे लुटता देख रहा हूँ
रस्ता रस्ता सहल हुआ है चलना
आगे आगे साया देख रहा हूँ
मौसम मौसम फैल रही है ख़ुश्बू
दूर से तुझ को आता देख रहा हूँ
बौछारों में बरस रहे हैं बादल
और मैं ख़ुद को जलता देख रहा हूँ
ग़ज़ल
कैसा अजब तमाशा देख रहा हूँ
कुमार पाशी

