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कई ज़मानों से मुझ में जो दर्द बिखरा था | शाही शायरी
kai zamanon se mujh mein jo dard bikhra tha

ग़ज़ल

कई ज़मानों से मुझ में जो दर्द बिखरा था

जलील हैदर लाशारी

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कई ज़मानों से मुझ में जो दर्द बिखरा था
ज़रा सी उम्र में उस ने कहाँ सिमटना था

नहीं गिला जो मुझे मिल गया है ग़म इतना
कभी किसी ने तो आख़िर ये दर्द सहना था

लगे थे काँपने जल्लाद के जो दस्त ओ पा
अजल से मिल के गले कोई मुस्कुराया था

ख़िराज देता चला आ रहा हूँ नस्लों से
ये किस ग़नीम के हाथों में इतना हारा था

मैं कब का टूट के 'हैदर' बिखर गया होता
ख़ुदा का शुक्र तिरे दर्द का सहारा था