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कई सूखे हुए पत्ते हरे मालूम होते हैं | शाही शायरी
kai sukhe hue patte hare malum hote hain

ग़ज़ल

कई सूखे हुए पत्ते हरे मालूम होते हैं

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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कई सूखे हुए पत्ते हरे मालूम होते हैं
हमें देखो कहीं से दिल-जले मालूम होते हैं

महीनों से जो ख़ाली था वो कमरा उठ गया शायद
ये अल्हड़-पन ये मासूमी नए मालूम होते हैं

सिमट आती थी किस अपनाइयत के साथ वो कुटिया
इमारत में तो हम दुबके हुए मालूम होते हैं

ग़मों पर मुस्कुरा लेते हैं लेकिन मुस्कुरा कर हम
ख़ुद अपनी ही नज़र में चोर से मालूम होते हैं

क़दम लेती है बढ़ कर ओस में भीगी हुई धरती
ये पस-माँदा मुसाफ़िर शहर के मालूम होते हैं

बढ़ावा दे रहे हैं मुज़्महिल चेहरे की ज़र्दी को
तिरे जूड़े में ये ग़ुंचे बुरे मालूम होते हैं

बताएँ क्या कि बेचैनी बढ़ाते हैं वही आ कर
बहुत बेचैन हम जिन के लिए मालूम होते हैं

पुराना हो चुका चश्मे का नंबर बढ़ गया शायद
सितारे हम को मिट्टी के दिए मालूम होते हैं

सुना ऐ दोस्तो तुम ने कि शायर हैं 'मुज़फ़्फ़र' भी
ब-ज़ाहिर आदमी कितने भले मालूम होते हैं