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कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा | शाही शायरी
kai koThe chaDhega wo kai zinon se utrega

ग़ज़ल

कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा

ज़ुबैर रिज़वी

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कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
बदन की आग ले कर शब गए फिर घर को लौटेगा

गुज़रती शब के होंटों पर कोई बे-साख़्ता बोसा
फिर इस के बाद तो सूरज बड़ी तेज़ी से चमकेगा

हमारी बस्तियों पर दूर तक उमडा हुआ बादल
हवा का रुख़ अगर बदला तो सहराओं पे बरसेगा

ग़ज़ब की धार थी इक साएबाँ साबित न रह पाया
हमें ये ज़ोम था बारिश में अपना सर न भीगेगा

मैं उस महफ़िल की रौशन साअतों को छोड़ कर गुम हूँ
अब इतनी रात को दरवाज़ा अपना कौन खोलेगा

मिरे चारों तरफ़ फैली है हर्फ़-ओ-सौत की दुनिया
तुम्हारा इस तरह मिलना कहानी बन के फैलेगा

पुराने लोग दरियाओं में नेकी डाल आते थे
हमारे दौर का इंसान नेकी कर के चीख़ेगा