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कैफ़ियत ही कैफ़ियत में हम कहाँ तक आ गए | शाही शायरी
kaifiyat hi kaifiyat mein hum kahan tak aa gae

ग़ज़ल

कैफ़ियत ही कैफ़ियत में हम कहाँ तक आ गए

सय्यद मुबीन अल्वी ख़ैराबादी

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कैफ़ियत ही कैफ़ियत में हम कहाँ तक आ गए
बे-ख़ुदी वो थी कि उन के आस्ताँ तक आ गए

वक़्त की रौ में बहे थे जाने किस अंदाज़ में
ये ख़बर भी हो न पाई हम कहाँ तक आ गए

ख़ुद सुकून-ए-आगही ने रूह को तस्कीन दी
हम बिछड़ कर जब ग़ुबार-ए-कारवाँ तक आ गए

सर-फ़रोशान-ए-वफ़ा को भी न छोड़ा इश्क़ ने
मरहले सारी ख़ता के मेहरबाँ तक आ गए

राह-ए-मंज़िल की जहाँ पहचानना दुश्वार थी
ज़िंदगी तेरे क़दम ऐसे निशाँ तक आ गए

हर क़दम पर हम को दुनिया रोकती ही रह गई
एक जज़्बा था जो तेरे आस्ताँ तक आ गए

मिलना था हुस्न-ए-बयाँ को एक इज़हार-ए-ख़ुलूस
लफ़्ज़-ओ-मा'नी ख़ुद-बख़ुद उर्दू ज़बाँ तक आ गए

देखना है फ़ैसला मौज-ए-हवादिस का मुबीन
कश्ती-ए-दिल ले के बहर-ए-बे-कराँ तक आ गए