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कैफ़-ए-मस्ती में अजब जलवा-ए-यकताई था | शाही शायरी
kaif-e-masti mein ajab jalwa-e-yaktai tha

ग़ज़ल

कैफ़-ए-मस्ती में अजब जलवा-ए-यकताई था

साहिर देहल्वी

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कैफ़-ए-मस्ती में अजब जलवा-ए-यकताई था
तू ही तू था न तमाशा न तमाशाई था

हुस्न बे-वास्त-ए-ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई था
इश्क़ बे-वाहिमा-ए-लज़्ज़त-ए-रुस्वाई था

तेरी हस्ती में न कसरत थी न वहदत पैदा
हमा ओ बे-हमा ओ बा-हमा यकजाई था

पर्दा-दर कोई न था और न दर-पर्दा कोई
ग़ैरत-ए-इश्क़ न थी आलम-ए-तन्हाई था

ला-फ़ना तेरी सिफ़त थी तेरी हस्ती का सुबूत
बे-निशाँ तेरा निशाँ सूरत-ए-बीनाई था

हाल था हाल न माज़ी था न था मुस्तक़बिल
अज़-अज़ल ता-ब-अबद जल्वा-ब-रा'नाई था

ज़ात क़ाएम थी ब-ज़ात और सिफ़त थी मादूम
कुन न था मा'रका-ए-अंजुमन-आराई था

बज़्म में तू ने जो उल्टा रुख़-ए-रौशन से नक़ाब
एक आलम तेरे जल्वे का तमाशाई था

फ़ित्ना-ज़ा हुस्न हुआ इश्क़ हुआ शोर-ए-फ़गन
रम हुआ शौक़-फ़ज़ा शौक़ तमन्नाई था

कोई साबित कोई सय्यारा कोई मुतहय्यर
कोई आशिक़ कोई मजनूँ कोई सौदाई था

हर्फ़ और सौत में आता है किसी का हो कलाम
'साहिर' आग़ाज़ में कुन ग़ायत-ए-पैदाई था