कैफ़-ए-अदा भी है निगह-ए-पुर-फ़ितन के साथ
लगती है दिल पे चोट मगर बाँकपन के साथ
ख़ुनकी है चाँदनी में तमाज़त है धूप में
तश्बीह किस को दें तिरे नूर-ए-बदन के साथ
सर दे के सुर्ख़-रू थे कभी बंदगान-ए-इश्क़
रस्म-ए-कोहन थी ख़त्म हुई कोहकन के साथ
इक मस्लहत की मोहर है लब पर लगी हुई
वर्ना हज़ार शिकवे हैं अहल-ए-वतन के साथ
वो शेर-ए-नग़्ज़ क्यूँ न हो जुज़्व-ए-रग-ए-हयात
कुछ फ़िक्र का रचाव भी जिस में हो फ़न के साथ
ग़ज़ल
कैफ़-ए-अदा भी है निगह-ए-पुर-फ़ितन के साथ
मंज़ूर अहमद मंज़ूर