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कहूँ ये कैसे कि जीने का हौसला देते | शाही शायरी
kahun ye kaise ki jine ka hausla dete

ग़ज़ल

कहूँ ये कैसे कि जीने का हौसला देते

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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कहूँ ये कैसे कि जीने का हौसला देते
मगर यही कि मुझे ग़म कोई नया देते

शब-ए-गुज़िश्ता बहुत तेज़ चल रही थी हवा
सदा तो दी पे कहाँ तक तुझे सदा देते

कई ज़माने इसी पेच-ओ-ताब में गुज़रे
कि आसमाँ को तिरे पाँव पर झुका देते

ये कहिए लौह-ए-जबीं पर है दाग़-ए-रुस्वाई
ज़माने वाले हमें ख़ाक में मिला देते

हुई थी हम से जो लग़्ज़िश तो थाम लेना था
हमारे हाथ तुम्हें उम्र भर दुआ देते

भला हुआ कि कोई और मिल गया तुम सा
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते

कोई हो लम्हा-ए-फ़ुर्सत कि बैठ कर हम भी
ज़रा उरूस-ए-तमन्ना को आईना देते

मिला है जुर्म-ए-वफ़ा पर अज़ाब-ए-महजूरी
हम अपने आप को इस से कड़ी सज़ा देते

ज़बाँ पे किस लिए ये हर्फ़-ए-नागवार आता
हमारे ज़ख़्म हमारा अगर पता देते

ज़रा सी देर ठहरती जो गर्दिश-ए-अय्याम
उसे शबाब-ए-गुरेज़ाँ का वास्ता देते