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कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है | शाही शायरी
kahun main kya ki kya dard-e-nihan hai

ग़ज़ल

कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

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कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है
तुम्हारे पूछने ही से अयाँ है

शिकायत की भी अब ताक़त कहाँ है
निगाह-ए-हसरत आह-ए-ना-तवाँ है

निशान-ए-पा-ए-ग़ैर उस आस्ताँ पर
नहीं है मेरे मरक़द का निशाँ है

अजल ने की है किस दम मेहरबानी
कि जब पहलू में वो ना-मेहरबाँ है

तुझे भी मिल गया है कोई तुझ सा
अब आईने से वो सोहबत कहाँ है

ये किस गुल-रू का आलम याद आया
दम-ए-सर्द इक नसीम-ए-बोस्ताँ है

हुई बेताबी-ए-बुलबुल मोअस्सिर
कि घबराया हुआ कुछ बाग़बाँ है

सहर उन को इरादा है सफ़र का
क़यामत आने में शब दरमियाँ है

कोई याँ लाओ उस ईसा-नफ़स को
कि मरता 'शेफ़्ता' नाम इक जवाँ है