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कहूँ जो कर्ब फ़क़त कर्ब-ए-ज़ात समझोगे | शाही शायरी
kahun jo karb faqat karb-e-zat samjhoge

ग़ज़ल

कहूँ जो कर्ब फ़क़त कर्ब-ए-ज़ात समझोगे

आफ़ताब आरिफ़

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कहूँ जो कर्ब फ़क़त कर्ब-ए-ज़ात समझोगे
मगर कभी तो मिरी नफ़सियात समझोगे

ये उम्र जाओ भी दो चार दिन की क्या है बिसात
अभी कहाँ से ग़म-ए-काएनात समझोगे

मिरा वजूद सिला है मिरी शिकस्तों का
बिगड़ बिगड़ के बनोगे तो बात समझोगे

अभी तो जुम्बिश-ए-लब पर हज़ार पहरे हैं
जो लब खुले भी तो क्या दिल की बात समझोगे

इधर न आओ अब इस शहर में उजालों के
वो तीरगी है कि दिन को भी रात समझोगे