कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
मंज़र यहाँ तमाम मगर कर्बला का है
आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
तुम भी उठाओ हाथ कि मौसम दुआ का है
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
इन साज़िशों में हाथ किसी आश्ना का है
अब हम विसाल-ए-यार से बे-ज़ार हैं बहुत
दिल का झुकाव हिज्र की जानिब बला का है
ये क्या कहा कि अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहे
'असअद' जो तेरे शहर में बंदा ख़ुदा का है
ग़ज़ल
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
असअ'द बदायुनी