कहो तुम किस सबब रूठे हो प्यारे बे-गुनह हम सीं
चुराने क्यूँ लगी हैं यूँ तिरी अँखियाँ निगह हम सीं
इती ना-मेहरबानी क्यूँ करी नाहक़ ग़रीबों पर
किया क्या हम नीं ज़ालिम अपने जी की बात कह हम सीं
क्या था नक़्द-ए-जाँ अपना निसार इस वास्ते तुम पर
कि बे-तक़सीर यूँ दिल में रखोगे तुम गिरह हम सीं
तग़ाफ़ुल छुड़ना ज़ालिम बे-तकल्लुफ़ हो सितम मत कर
कपट की आश्नाई ये नहीं सकती निबह हम सीं
तुम्हारी तरह मिलना छोड़ कर बेदर्द हो रहना
कहो क्यूँ-कर ये सकता है जिते जियो ये गुनह हम सीं
लगे हैं ग़ैर-फ़र्ज़ीं की तरह मिल कज-रवी करने
हमेशा जो कि खा जाते हैं सब बातों में शह हम सीं
मैं अपनी जान सीं हाज़िर हूँ लेकिन 'आबरू' तो रख
ख़ुदा के वास्ते ईता भी रूखा तू न रह हम सीं
ग़ज़ल
कहो तुम किस सबब रूठे हो प्यारे बे-गुनह हम सीं
आबरू शाह मुबारक