कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
जो न होनी थी वो ग़ैरों की बदौलत हो गई
रोज़ आती है मगर इक रोज़ भी आती नहीं
ऐ अजल तू भी मिरे हक़ में क़यामत हो गई
मेरे उन के अब कहाँ पहला तपाक-ए-आ'शिक़ी
चलते फिरते मिल गए साहब-सलामत हो गई
समझे थे दश्त-ए-जुनूँ में कुछ बहल जाएगा दिल
देख कर सुनसान जंगल दूनी वहशत हो गई
शक्ल दिखलाती नहीं शीशे से आ के जाम में
दुख़्तर-ए-रज़ तू तो अभी से बे-मुरव्वत हो गई
मर्ग-ए-आशिक़ का अबस है सोग हर दम इस क़दर
छुट गया वो क़ैद-ए-ग़म से तुम को फ़ुर्सत हो गई
फ़स्ल-ए-गुल आई बढ़े जोश-ए-जुनूँ के वलवले
फिर वही 'तस्लीम' अपनी ग़ैर हालत हो गई
ग़ज़ल
कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
अमीरुल्लाह तस्लीम