कहने को तो क्या क्या न दिल-ए-ज़ार में आए
हर बात कहाँ क़ालिब-ए-इज़हार में आए
नज़दीक जो पहुँचे तो वो आहों का धुआँ था
कहने को तो हम साया-ए-दीवार में आए
हर मौजा-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाए तो अच्छा
हर फूल मिरे हल्क़ा-ए-दस्तार में आए
हम अपनी सलीबों की हिफ़ाज़त में खड़े हैं
अब जो भी शिकन गेसू-ए-दिल-दार में आए
पाँव में अगर तौक़-ओ-सलासिल हैं तो क्या ग़म
ऐ हम-सफ़रो फ़र्क़ न रफ़्तार में आए
इक उम्र भटकते हुए गुज़री है जुनूँ में
अब कौन फ़रेब-ए-निगह-ए-यार में आए
ऐ काश कभी उस का इधर से भी गुज़र हो
इक दिन तो सबा लौट के गुलज़ार में आए
जचते भी तो क्या चश्म-ए-ख़रीदार में 'ताहिर'
हम कौन से यूसुफ़ थे जो बाज़ार में आए

ग़ज़ल
कहने को तो क्या क्या न दिल-ए-ज़ार में आए
जाफ़र ताहिर