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कहीं ये दर्द का धागा भी यूँ सुलझता है | शाही शायरी
kahin ye dard ka dhaga bhi yun sulajhta hai

ग़ज़ल

कहीं ये दर्द का धागा भी यूँ सुलझता है

क़मर इक़बाल

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कहीं ये दर्द का धागा भी यूँ सुलझता है
गिरह जो खोलें तो दिल और भी उलझता है

वो एक बात जो दिल में है मेरे उस के लिए
ज़बाँ से कहता नहीं वो मगर समझता है

मैं तेरी आँखों की ये प्यास किस तरह देखूँ
मिरे वजूद में बादल कोई गरजता है

अजीब चीज़ है ये ख़ूबी-ए-ख़ुतूत-ए-बदन
कोई लिबास हो उस के बदन पे सजता है

ये रात और ये डसती हुई सी तन्हाई
लहू का साज़ 'क़मर' तन-बदन में बजता है