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कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह | शाही शायरी
kahin yaqin se na ho jaen hum guman ki tarah

ग़ज़ल

कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह

फ़रह इक़बाल

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कहीं यक़ीं से न हो जाएँ हम गुमाँ की तरह
सँभाल कर हमें रखिए मता-ए-जाँ की तरह

जिसे सदफ़ की तरह आँख में छुपाया था
वो खो न जाए कहीं अश्क-ए-राएगाँ की तरह

हमें भी ख़ौफ़-ए-तलातुम ने घेर रखा था
खुला नहीं था अभी वो भी बादबाँ की तरह

निसाब-ए-इश्क़ में सारे सवाल मुश्किल थे
मोहब्बतें भी थीं दरपेश इम्तिहाँ की तरह

खुले जो लब तो उन्ही आइनों में हैरत थी
जो देखते थे हमें अक्स-ए-बे-ज़बाँ की तरह

जहाँ मिली थीं कभी ख़ुशबुएँ हवाओं से
महक रहा था वो जंगल भी गुलिस्ताँ की तरह

हुनर-वरी है हमारी कि अपने ख़्वाबों से
क़फ़स भी हम ने सजाया था आशियाँ की तरह