कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया
गया वो शख़्स तो फिर लौट कर नहीं आया
कहूँ तो किस से कहूँ आ के अब सर-ए-मंज़िल
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया
मैं वो मुसाफ़िर-ए-दश्त-ए-ग़म-ए-मोहब्बत हूँ
जो घर पहुँच के भी सोचे कि घर नहीं आया
सबा ने फ़ाश किया राज़-ए-बू-ए-गेसू-ए-यार
ये जुर्म अहल-ए-तमन्ना के सर नहीं आया
कभी कोई तिरे वादों का तज़्किरा छेड़े
तो क्या कहूँ कि कोई नामा-बर नहीं आया
फिर एक ख़्वाब-ए-वफ़ा भर रहा है आँखों में
ये रंग हिज्र की शब जाग कर नहीं आया
मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
यूँही सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया
न जाने ज़ब्त के हाथों 'सहर' पे क्या गुज़री
बहुत दिनों से वो आशुफ़्ता-सर नहीं आया
ग़ज़ल
कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया
सहर अंसारी