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कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया | शाही शायरी
kahin wo chehra-e-zeba nazar nahin aaya

ग़ज़ल

कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया

सहर अंसारी

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कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया
गया वो शख़्स तो फिर लौट कर नहीं आया

कहूँ तो किस से कहूँ आ के अब सर-ए-मंज़िल
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

मैं वो मुसाफ़िर-ए-दश्त-ए-ग़म-ए-मोहब्बत हूँ
जो घर पहुँच के भी सोचे कि घर नहीं आया

सबा ने फ़ाश किया राज़-ए-बू-ए-गेसू-ए-यार
ये जुर्म अहल-ए-तमन्ना के सर नहीं आया

कभी कोई तिरे वादों का तज़्किरा छेड़े
तो क्या कहूँ कि कोई नामा-बर नहीं आया

फिर एक ख़्वाब-ए-वफ़ा भर रहा है आँखों में
ये रंग हिज्र की शब जाग कर नहीं आया

मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
यूँही सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया

न जाने ज़ब्त के हाथों 'सहर' पे क्या गुज़री
बहुत दिनों से वो आशुफ़्ता-सर नहीं आया