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कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या | शाही शायरी
kahin to luTna hai phir naqd-e-jaan bachana kya

ग़ज़ल

कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या

इन आँधियों में भला कौन इधर से गुज़रेगा
दरीचे खोलना कैसा दिए जलाना क्या

जो तीर बूढ़ों की फ़रियाद तक नहीं सुनते
तो उन के सामने बच्चों का मुस्कुराना क्या

मैं गिर गया हूँ तो अब सीने से उतर आओ
दिलेर दुश्मनो टूटे मकाँ को ढाना क्या

नई ज़मीं की हवाएँ भी जान-लेवा हैं
न लौटने के लिए कश्तियाँ जलाना क्या

कनार-ए-आब खड़ी खेतियाँ ये सोचती हैं
वो नर्म-रू है नदी का मगर ठिकाना क्या