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कहीं सूरज कहीं ज़र्रा चमकता है | शाही शायरी
kahin suraj kahin zarra chamakta hai

ग़ज़ल

कहीं सूरज कहीं ज़र्रा चमकता है

फ़राग़ रोहवी

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कहीं सूरज कहीं ज़र्रा चमकता है
इशारे से तिरे क्या क्या चमकता है

फ़लक से जब नई किरनें उतरती हैं
गुहर सा शबनमी क़तरा चमकता है

उसे दुनिया कभी दरिया नहीं कहती
चमकने को तो हर सहरा चमकता है

सितारा तो सितारा है मिरे भाई
कभी तेरा कभी मेरा चमकता है

मिरी मैली हथेली पर तो बचपन से
ग़रीबी का खरा सोना चमकता है

मशक़्क़त की बदौलत ही जबीनों पर
पसीने का हर इक क़तरा चमकता है

क़रीने से तराशा ही न जाए तो
किसी पहलू कहाँ हीरा चमकता है

ये क्या तुरफ़ा-तमाशा है सियासत का
कहीं ख़ंजर कहीं नेज़ा चमकता है

तसव्वुर में 'फ़राग़' आठों पहर अब तो
कोई चेहरा ग़ज़ल जैसा चमकता है