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कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए | शाही शायरी
kahin se koi harf-e-motabar shayad na aae

ग़ज़ल

कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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कहीं से कोई हर्फ़-ए-मो'तबर शायद न आए
मुसाफ़िर लौट कर अब अपने घर शायद न आए

क़फ़स में आब-ओ-दाने की फ़रावानी बहुत है
असीरों को ख़याल-ए-बाल-ओ-पर शायद न आए

किसे मालूम अहल-ए-हिज्र पर ऐसे भी दिन आएँ
क़यामत सर से गुज़रे और ख़बर शायद न आए

जहाँ रातों को पड़ रहते हों आँखें मूँद कर लोग
वहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आए

कभी ऐसा भी दिन निकले कि जब सूरज के हमराह
कोई साहिब-नज़र आए मगर शायद न आए

सभी को सहल-अँगारी हुनर लगने लगी है
सरों पर अब ग़ुबार-ए-रहगुज़र शायद न आए