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कहीं से ग़ैर जो पहलू में आए बैठे हैं | शाही शायरी
kahin se ghair jo pahlu mein aae baiThe hain

ग़ज़ल

कहीं से ग़ैर जो पहलू में आए बैठे हैं

जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर

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कहीं से ग़ैर जो पहलू में आए बैठे हैं
इसी लिए वो हमें यूँ भुलाए बैठे हैं

ज़रा समझ के करो हम से अपने ग़म का बयाँ
हम एक उम्र के सदमे उठाए बैठे हैं

कभी ख़याल में अपने मुझे नहीं लाए
वो मुद्दतों से मिरे दिल में आए बैठे हैं

कहाँ से लोगे वो सूरत वो कम-सिनी का जमाल
हम अपने गोशा-ए-दिल में छुपाए बैठे हैं

ख़ुदा का शुक्र है उन को ख़याल तो आया
कि वो किसी की नज़र में समाए बैठे हैं

धरा ही क्या है मोहब्बत में बे-कसी के सिवा
हम अपने आप मुक़द्दर बनाए बैठे हैं

निगाह-ए-नाज़ के तालिब हैं रहगुज़र में तिरी
इसी फ़िराक़ में धूनी रमाए बैठे हैं

किसी को देख लिया था कहीं पे नादाँ ने
तभी से ख़ुद को ये हज़रत लुभाए बैठे हैं