कहीं से बास नए मौसमों की लाती हुई
हवा-ए-ताज़ा दर-ए-नीम-वा से आती हुई
ब-तौर-ए-ख़ास कहाँ इस नगर सबा का वरूद
कभी कभी यूँही रुकती है आती जाती हुई
मैं अपने ध्यान में गुम-सुम और एक साअत-ए-शोख़
गुज़र गई मिरी हालत पे मुस्कुराती हुई
सराब-ए-ख़्वाहिश-ए-आसूदगी मगर कोई शय
मिली नहीं है तबीअत से मेल खाती हुई
लहू में तैरती ख़ामोशियों के साथ कहीं
रवाँ-दवाँ है कोई चीख़ सनसनाती हुई
यहाँ वहाँ हैं कई ख़्वाब जगमगाते हुए
कहीं कहीं कोई ताबीर टिमटिमाती हुई
ग़ज़ल
कहीं से बास नए मौसमों की लाती हुई
आबिद सयाल