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कहीं रुस्वा तिरा शैदा सर-ए-महफ़िल न हो जाए | शाही शायरी
kahin ruswa tera shaida sar-e-mahfil na ho jae

ग़ज़ल

कहीं रुस्वा तिरा शैदा सर-ए-महफ़िल न हो जाए

नय्यर आस्मी

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कहीं रुस्वा तिरा शैदा सर-ए-महफ़िल न हो जाए
परेशानी जुनून-ए-इश्क़ का हासिल न हो जाए

अभी कुछ ठोकरें खानी हैं तूफ़ान-ए-हवादिस में
कहीं कश्ती मिरी शर्मिंदा-ए-साहिल न हो जाए

बिखरते हैं तिरे शानों पे गेसू आज बल खा कर
कहीं बरहम ये मेरी काएनात-ए-दिल न हो जाए

टपकती हैं ख़िराम-ए-नाज़ से रंगीनियाँ सौ सौ
मुझे डर है कि ये दुनिया सिमट कर दिल न हो जाए

क़रार-ए-इज़तिराब-ए-जान-ओ-दिल 'नय्यर' उसी से है
परे गर्दन से मेरी ख़ंजर-ए-क़ातिल न हो जाए