कहीं रुस्वा तिरा शैदा सर-ए-महफ़िल न हो जाए
परेशानी जुनून-ए-इश्क़ का हासिल न हो जाए
अभी कुछ ठोकरें खानी हैं तूफ़ान-ए-हवादिस में
कहीं कश्ती मिरी शर्मिंदा-ए-साहिल न हो जाए
बिखरते हैं तिरे शानों पे गेसू आज बल खा कर
कहीं बरहम ये मेरी काएनात-ए-दिल न हो जाए
टपकती हैं ख़िराम-ए-नाज़ से रंगीनियाँ सौ सौ
मुझे डर है कि ये दुनिया सिमट कर दिल न हो जाए
क़रार-ए-इज़तिराब-ए-जान-ओ-दिल 'नय्यर' उसी से है
परे गर्दन से मेरी ख़ंजर-ए-क़ातिल न हो जाए
ग़ज़ल
कहीं रुस्वा तिरा शैदा सर-ए-महफ़िल न हो जाए
नय्यर आस्मी