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कहीं राज़-ए-दिल अब अयाँ हो न जाए | शाही शायरी
kahin raaz-e-dil ab ayan ho na jae

ग़ज़ल

कहीं राज़-ए-दिल अब अयाँ हो न जाए

राम कृष्ण मुज़्तर

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कहीं राज़-ए-दिल अब अयाँ हो न जाए
निगाह-ए-मोहब्बत ज़बाँ हो न जाए

वो कुछ मेहरबाँ से नज़र आ रहे हैं
कहीं वक़्त ना-मेहरबाँ हो न जाए

छुपाता तो हूँ दिल की हालत को लेकिन
किसी की नज़र राज़दाँ हो न जाए

कोई पुर्सिश-ए-हाल को आ रहा है
ग़म-ए-आरज़ू फिर जवाँ हो न जाए

ज़माने में अब मेरे चर्चे हैं 'मुज़्तर'
मिरी ज़िंदगी दास्ताँ हो न जाए