कहीं राज़-ए-दिल अब अयाँ हो न जाए
निगाह-ए-मोहब्बत ज़बाँ हो न जाए
वो कुछ मेहरबाँ से नज़र आ रहे हैं
कहीं वक़्त ना-मेहरबाँ हो न जाए
छुपाता तो हूँ दिल की हालत को लेकिन
किसी की नज़र राज़दाँ हो न जाए
कोई पुर्सिश-ए-हाल को आ रहा है
ग़म-ए-आरज़ू फिर जवाँ हो न जाए
ज़माने में अब मेरे चर्चे हैं 'मुज़्तर'
मिरी ज़िंदगी दास्ताँ हो न जाए
ग़ज़ल
कहीं राज़-ए-दिल अब अयाँ हो न जाए
राम कृष्ण मुज़्तर