EN اردو
कहीं क़ाबिल-ए-करम है कहीं पैकर-ए-सितम भी | शाही शायरी
kahin qabil-e-karam hai kahin paikar-e-sitam bhi

ग़ज़ल

कहीं क़ाबिल-ए-करम है कहीं पैकर-ए-सितम भी

मसूद मैकश मुरादाबादी

;

कहीं क़ाबिल-ए-करम है कहीं पैकर-ए-सितम भी
यही ज़िंदगी जहन्नम यही ज़िंदगी इरम भी

मैं वो हर्फ़-ए-अव्वलीं हूँ न मिटा सका ज़माना
कि हज़ार मुझ से उलझे ये जहाँ के पेच-ओ-ख़म भी

यही फ़र्क़ तो है नादाँ तिरे ग़म में मेरे ग़म में
तुझे दोस्तों का ग़म है मुझे दुश्मनों का ग़म भी

न ख़िरद ही हम-सफ़र है न जुनूँ ही राहबर है
ये मक़ाम कौन सा है यहाँ रुक गए क़दम भी

ये अजीब मय-कदा है कि गुमान-ए-मय-कदा है
यहाँ रिंद होश में हैं यहाँ फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम भी

मिरी ज़िंदगी में ऐसी कई मंज़िलें भी आईं
जहाँ कुछ न काम आई तिरी पुर्सिश-ए-करम भी

न मिली जुनूँ में 'मैकश' मुझे फ़ुर्सत-ए-नज़ारा
सर-ए-राह यूँ तो आए कई दैर भी हरम भी