कहीं पे जिस्म कहीं पर ख़याल रहता है
मोहब्बतों में कहाँ ए'तिदाल रहता है
फ़लक पे चाँद निकलता है और दरिया में
बला का शोर ग़ज़ब का उबाल रहता है
दयार-ए-दिल में भी आबाद है कोई सहरा
यहाँ भी वज्द में रक़्साँ ग़ज़ाल रहता है
छुपा है कोई फ़ुसूँ-गर सराब आँखों में
कहीं भी जाओ उसी का जमाल रहता है
तमाम होता नहीं इश्क़-ए-ना-तमाम कभी
कोई भी उम्र हो ये ला-ज़वाल रहता है
विसाल-ए-जिस्म की सूरत निकल तो आती है
दिलों में हिज्र का मौसम बहाल रहता है
ख़ुशी के लाख वसाएल ख़रीद लो 'आलम'
दिल-ए-शिकस्ता मगर पुर-मलाल रहता है
ग़ज़ल
कहीं पे जिस्म कहीं पर ख़याल रहता है
आलम ख़ुर्शीद