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कहीं पर ज़ुल्म के शो'ले कहीं पर ख़ुद-परस्ती है | शाही शायरी
kahin par zulm ke shoale kahin par KHud-parasti hai

ग़ज़ल

कहीं पर ज़ुल्म के शो'ले कहीं पर ख़ुद-परस्ती है

आली ख़ान जौहर

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कहीं पर ज़ुल्म के शो'ले कहीं पर ख़ुद-परस्ती है
चमन की आबरू ख़तरे में है ये बात सच्ची है

वो घोला ज़हर नफ़रत का सियासत ने फ़ज़ाओं में
गुलों की आँख से शबनम लहू बन कर टपकती है

बग़ावत पर अगर हम लोग उतर आए तो क्या होगा
अभी तो हम ने रस्सी सब्र की ये थाम रक्खी है

वहाँ इंसाफ़ की उम्मीद ले कर जा रहे हो तुम
जहाँ क़ानून ने आँखों से पट्टी बाँध रक्खी है

तड़पता हूँ बिछड़ कर आप से कुछ इस तरह 'जौहर'
बिना पानी के जैसे रेत पे मछली तड़पती है