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कहीं पर ज़िंदगी का नाम-ए-नामी मौज-मस्ती है | शाही शायरी
kahin par zindagi ka nam-e-nami mauj-masti hai

ग़ज़ल

कहीं पर ज़िंदगी का नाम-ए-नामी मौज-मस्ती है

अयाज़ अहमद तालिब

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कहीं पर ज़िंदगी का नाम-ए-नामी मौज-मस्ती है
कहीं पर आदमियत ज़िंदा रहने को तरसती है

जहान-ए-ज़िंदगी की क़ुदरती तस्वीर हैं दोनों
कहीं सूखा पड़ा है और कहीं बारिश बरसती है

तिरी दौलत तुझे क्या फ़ैज़ पहुँचाएगी तेरे बा'द
मयस्सर ज़िंदगी जितनी भी क़ीमत पर हो सस्ती है

किसी क़ाबिल में होता तो कभी का क़त्ल हो जाता
कि हर अहल-ए-सलाहिय्यत की दुश्मन मेरी बस्ती है

मोहब्बत ही किया करती है आमादा बग़ावत पर
मोहब्बत ही वफ़ादारी की ज़ंजीरों में कसती है

कमा लेना मगर हरगिज़ न करना प्यार दौलत से
ये नागिन अपने शैदा को निहत्था कर के डसती है

कभी 'तालिब' यहाँ इंसानियत की क़द्र होती थी
मगर अब जिस तरफ़ भी देखता हूँ ज़र-परस्ती है