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कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं | शाही शायरी
kahin na tha wo dariya jis ka sahil tha main

ग़ज़ल

कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं

शारिक़ कैफ़ी

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कहीं न था वो दरिया जिस का साहिल था मैं
आँख खुली तो इक सहरा के मुक़ाबिल था मैं

हासिल कर के तुझ को अब शर्मिंदा सा हूँ
था इक वक़्त कि सच-मुच तेरे क़ाबिल था मैं

किस एहसास-ए-जुर्म की सब करते हैं तवक़्क़ो'
इक किरदार किया था जिस में क़ातिल था मैं

कौन था वो जिस ने ये हाल किया है मेरा
किस को इतनी आसानी से हासिल था मैं

सारी तवज्जोह दुश्मन पर मरकूज़ थी मेरी
अपनी तरफ़ से तो बिल्कुल ही ग़ाफ़िल था मैं

जिन पर मैं थोड़ा सा भी आसान हुआ हूँ
वही बता सकते हैं कितना मुश्किल था मैं

नींद नहीं आती थी साज़िश के धड़के में
फ़ातेह हो कर भी किस दर्जा बुज़दिल था मैं

घर में ख़ुद को क़ैद तो मैं ने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफ़िल महफ़िल था मैं