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कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है | शाही शायरी
kahin jangal kahin darbar se ja milta hai

ग़ज़ल

कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है

राम रियाज़

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कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है
सिलसिला वक़्त का तलवार से जा मिलता है

मैं जहाँ भी हूँ मगर शहर में दिन ढलते ही
मेरा साया तिरी दीवार से जा मिलता है

तेरी आवाज़ कहीं रौशनी बन जाती है
तेरा लहजा कहीं महकार से जा मिलता है

चौदहवीं-रात तिरी ज़ुल्फ़ में ढल जाती है
चढ़ता सूरज तिरे रुख़्सार से जा मिलता है

गर्द फिर वुसअत-ए-सहरा में सिमट जाती है
रास्ता कूचा ओ बाज़ार से जा मिलता है

'राम' हर-चंद कई लोग बिछड़ जाते हैं
क़ाफ़िला क़ाफ़िला-सालार से जा मिलता है