कहीं जलती अपनी ही आँच से कहीं ख़ुशबुओं में भरी हुई
कोई शाख़-ए-गुल थी कि आग थी मिरे बाज़ुओं में भरी हुई
वो तिलिस्मी रात अभी तलक मिरे जिस्म ओ जाँ पे मुहीत है
वो जो रात उतरी थी अर्श से तिरे जादुओं में भरी हुई
तिरे चश्म ओ लब की शबाहतें मुझे रोज़ ओ शब मिलें बाग़ में
कहीं तितलियों पे लिखी हुई कहीं जुगनुओं में भरी हुई
मुझे सैर-ए-गुल की किसी रविश पे मिली नहीं है मिसाल भी
कोई बे-मिसाल सी मुश्क थी तिरे गेसुओं में भरी हुई
तू चला गया है तो शहर फिर वही दश्त-ए-ग़म है मिरे लिए
वही मैं हूँ और मिरी ज़िंदगी मिरे आँसुओं में भरी हुई

ग़ज़ल
कहीं जलती अपनी ही आँच से कहीं ख़ुशबुओं में भरी हुई
ख़ावर अहमद