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कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार | शाही शायरी
kahin fasana-e-gham hai kahin KHushi ki pukar

ग़ज़ल

कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार

रविश सिद्दीक़ी

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कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार
सुनेगा आज यहाँ कौन ज़िंदगी की पुकार

ख़ुदा शनास है ज़ाहिद मगर नहीं मालूम
कि आदमी को जगाती है आदमी की पुकार

लिबास-ए-सुब्ह में है कोई रहबर-ए-सादिक़
जगा रही है अँधेरे को रौशनी की पुकार

फ़ुग़ान-ए-रूह-ए-मोहब्बत थी या सदा-ए-हबीब
सुनी तो है दिल-ए-ख़ामोश ने किसी की पुकार

तिरा सुकूत न रुस्वा करे 'रविश' तुझ को
कि दूर दूर पहुँचती है ख़ामुशी की पुकार