कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार
सुनेगा आज यहाँ कौन ज़िंदगी की पुकार
ख़ुदा शनास है ज़ाहिद मगर नहीं मालूम
कि आदमी को जगाती है आदमी की पुकार
लिबास-ए-सुब्ह में है कोई रहबर-ए-सादिक़
जगा रही है अँधेरे को रौशनी की पुकार
फ़ुग़ान-ए-रूह-ए-मोहब्बत थी या सदा-ए-हबीब
सुनी तो है दिल-ए-ख़ामोश ने किसी की पुकार
तिरा सुकूत न रुस्वा करे 'रविश' तुझ को
कि दूर दूर पहुँचती है ख़ामुशी की पुकार
ग़ज़ल
कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार
रविश सिद्दीक़ी