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कहीं चराग़ जला रौशनी कहीं पहुँची | शाही शायरी
kahin charagh jala raushni kahin pahunchi

ग़ज़ल

कहीं चराग़ जला रौशनी कहीं पहुँची

काविश बद्री

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कहीं चराग़ जला रौशनी कहीं पहुँची
खुली थी आँख कहीं ज़िंदगी कहीं पहुँची

जो रू-ब-रू है उसी की तलाश जारी है
नज़र उठी कहीं बद-क़िस्मती कहीं पहुँची

हज़ार फ़ासले तय कर के भी वहीं हम हैं
कहीं से हो के तुम्हारी गली कहीं पहुँची

लहू उछाल के बंजर ज़मीं को सींचा था
ग़ज़ब तो ये है कि सारी नमी कहीं पहुँची

ख़ुशी का क्या है भरोसा मिले मिले न मिले
वो मेरे घर का पता ढूँढती कहीं पहुँची

वो मुज़्तरिब है कि फ़र्ज़ानगी को कुछ न मिला
मैं मुतमइन हूँ कि दीवानगी कहीं पहुँची

उड़ान मेरी पर-ओ-बाल से भी आगे थी
उड़ा के मुझ को मिरी शाइ'री कहीं पहुँची