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कहीं भी ज़िंदगी अपनी गुज़ार सकता था | शाही शायरी
kahin bhi zindagi apni guzar sakta tha

ग़ज़ल

कहीं भी ज़िंदगी अपनी गुज़ार सकता था

लराज बख़्शी

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कहीं भी ज़िंदगी अपनी गुज़ार सकता था
वो चाहता तो मैं दानिस्ता हार सकता था

ज़मीन पाँव से मेरे लिपट गई वर्ना
मैं आसमान से तारे उतार सकता था

जला रही हैं जिसे तेज़ धूप की नज़रें
वो अब्र बाग़ की क़िस्मत सँवार सकता था

अजीब मो'जिज़ा-कारी थी उस की बातों में
कि वो यक़ीं के जज़ीरे उभार सकता था

मिरे मकान में दीवार है न दरवाज़ा
मुझे तो कोई भी घर से पुकार सकता था

पुर-इत्मीनान थीं उस की रिफाक़तें 'बलराज'
वो आइने में मुझे भी उतार सकता था